
वैसे देखा जाए तो विश्व के परिदृश्य में भारत का गौरव गाथा चातुर्दिक क्षेत्रों में अकल्पनीय रहा है। कुछ ऐसे पहलू भी रहे है जो ईतिहासकारों से परे भी रहा। जिसमे संध-प्रदेश दादरा नगर हवेली का ऐतिहासिक अतीत रहा है। सन १९४७ की वह सुबह जब हिन्दुस्तान उगते हुए सुरज व चहकती हुई चिड़ियो की आवाज और पूर्वी हवाओं के झोंको के बीच अंग्रेजों व पुर्तगिजों से मिली आजादी का जशन माना रहे थे। वहीं दुसरी और कुछ भू-भाग के लोग बेड़ीयों में जक़डे हुए अपने भाग्य को कोष रहे थे। जिसमे दादरा एवं नगर हवेली दमन-दीव एवं गोवा, प्रमुख रूप से था। इस पर १९४७ के बाद भी एक लम्बे समय तक पुर्तगालियों का आधिपत्य बना रहा। दादरा नगर हवेली के अतीत की उस दुनियां में चले जहां खुबसूरती के चादर फैला, प्राकृतिक वांदिया अपनी अमीट छटा से लोगो को लुभाती रही है। पहा़डों जंगलों से आच्छादित प्राकृतिक भूमि का उदय, दादरा नगर हवेली के रूप में हुआ।
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दुनियां की १६ वी सदी के रूप में जानी जाती है। इस सदी में जहां पश्चिमि देश अपने औधोगिक संकल्पनाओं के फैलाव हेतु, उपनिवेशों के खोज में जलमार्ग द्वारा नए देश की तलाश जारी थी वही दुसरी और हिन्दुस्तान की सरजमी पर एक एसी फिजा वह रही थी। जो कि दिशाविहीन थी। सत्ता पर काविज होने के लिए, परस्पर युद्धो का, सामना करते-करते भारतीय जमीन की हकीकत, हरियाली के जगह खुन के फव्वारों से लाल रंग में परिणत हो गई। आलम यह था कि देश में जितने कोने थे, उतने शासक हो गए। सिमा विस्तार और धन प्राप्ति के लिए परस्पर एक दूसरे के राज्यों पर अकारण हीं आक्रमण कर दिया करते थे। फिर शुरू हो जाया करता था, मानवीयता का नंगा नाच। जो कि मानवीय सभ्यता का विकास का सबसे कष्टदायक क्षणों में से था।
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हिन्दुस्तान के अधिकांश राज्यों में मुगल के औरंगजेब की शासन थी। वहीं दुसरी और महाराष्ट्र की धरती पर हिन्दू सम्राट शिवाजी का घोडा दोडा था, जो कि मुगल और मराठों के बीच जारी ईस संधर्ष यात्रा का लाभ विदेशियों ने बखुबी उठाया और एक दिन एसा भी आया, कि इन दोनों ताकतों से इतर तीसरी ताकत अंग्रे़ज के रूप में आकार इन दोनों की शक्ति को क्षीण कर दिया। यहीं से शुरू हुई हिन्दुस्तान के गुलामी की दास्तान।
मुझे अंग्रेजों और हिन्दुस्तान के गुलामों की दास्तान पर विशेष प्रकाश नहीं डालनी चाहिए। क्यों कि लोग बखुबी ईस बात से अवगत है। परन्तु पुर्तगालियों द्वारा रोंदे गए ईस स्वर्ग सरीखी धरती के इतिहास का उल्लेख करूंगा जिसको मराठों ने बतौर जुर्माने के तौर पर पुर्तगालियों के हवाले कर दिया था।
संध प्रदेश दादरा नगर हवेली के एतिहासिक परतों को एक-एक कर उधे़डने के पश्चात एक आश्चर्यचकित कर देने वाला तथ्य सामने आता है। कहा जाता है कि कालांतर में राजपूत हिन्दू राजा राम सिंह ने महाराष्ट्र के साथ दक्षिण गुजरात के कई जिलों को मिलाकर ‘रामनगर’ के नाम से एक राज्य की स्थापना की थी। जिसमे एक प्रखड के रूप में, दादरा नगर हवेली को भी स्थान प्राप्त था।
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प्राकृतिक वन संपदाओं से भरा पूरा इस राज्य का विकास महाराजा रामसिंह ने इतनी शिध्रता से किया कि पडोंस के शेष राज्य के राजाओें की नजर रामनगर पर प़डने लगी। नतीजतन रामनगर को भी कई युद्धो का सामना करना प़डा। किन्तु महाराजा के कुशल नेतुतव के कारण इनके विरोधी परास्त हुए। १७ वी सदी के पूर्वा में हिन्दू सम्राट तथा महाराष्ट्र राज्य की ध़डकन शिवाजी महाराज सुरत पर आक्रमण करना चाहते थे। और इसके लिए उन्हे महाराज राम सिह द्वारा स्थापित किए गए रामनगर की सीमा से होकर गुजरना प़डता। महाराजा शिवाजी का सुरत पर आक्रमण करना मात्र, मुगलो द्वारा सजाए गए सुरत व इकठ्ठा किया गया धनसंपदा को लूटकर वापस महाराष्ट्र राज्य के आय का एक ब़डा हिस्सा युद्ध में भेट च़ढ गई थी, इन पारिस्थतियों में राज्य को सुचारु रूप से संचालित करने के लिए धन की नितांत आवश्यकता थी। अब यहां शिवा जी को सुरत को लुटने के अलावा कोई दुसरा विकल्प नहीं था। रामनगर नरेश के यहां महाराजा शिवाजी द्वारा एक शिष्टमंडल भेजकर इस रणनीति को सफल करने व रास्ता देने की बात-चीत की गई। रामनगर के महाराज ने उक्त भेजे गए शिष्टमंडल द्वारा संदेश स्वीकृत कर लिया। इसके तुरन्त बाद हीं मराठी सेना सुरत पर हमला बोल दी। अंतत: मुगलो को सुरत छो़ड कर भागना प़डा। पुन: कुछ समय बाद पेशवा बाजीराव ने भी सुरत पर हमला के लिए तत्पर हुए। उन्होने भी अपनी शिष्टमंडल रामनगर राजा के यहां भेजा। तब रामनगर के राजा जयदेव थे। इन्होने प्रस्ताव को ठुकरा दिया। और रास्ता न देने की बात की इसके पीछे का कारण यह रहा कि शिवाजी जब सुरत पर हमला किया उस समय यह करार हुआ था कि लुट की सम्पती में आधे-आधे का बंटवारा होगा।
लेकिन मराठी सेना उक्त करार पर खरी नहीं उतरी। पेशवाजी राव ने अपना प्रतीकार देखते हुए रामनगर को तहस-नहस करने का आदेश पारित किया, तदोपरांत रामनगर में मराठी सेनाओं ने काफी जान-माल का नुकसान पाहुचाया। जयदेव सपत्नी राजमहल छो़ड कर, जंगल भाग गए। लेकिन मराठी सेना जंगल से भी खोजकर बंदी बना लिया। बाजीराव कूटनीतिक ओपचारिकताओं के नाते एवं क्रोध शांत हो जाने के कारण पुन: रामनगर की सत्ता जयदेव को लौटा दिया। इस घटना के बहुत समय पूर्व में ही, उपनिवेश के होड में शामिल पुर्तगाल, अपने प्रमुख प्रतिद्वदी ब्रिटेन को क़डी टक्कर देने के लिए नए राष्ट्रो की खोज में उनके नाविक भारत के दक्षिण-पश्चिमी किनारों पर आए। भारत के शासकों की लचर शासन पद्दती के वजह से पुर्तगालियों ने ब़डे चालाकी से गोवा, दमन-दीव पर अपना शासन स्थापित की एक दिलचस्प कहानी है।
रामनगर में मराठियों द्वारा कर वसूली का कार्य पुर्तगालियों द्वारा करने का आदेश किया गया। जिसमे दादरा नगर हवेली भी शामिल था। यहीं पुर्तगालियों द्वारा इस शहर में प्रथम प्रवेश माना जाता है। मराठियों ने मुगलों एवं अंग्रे़जो के ब़ढते प्रभुत्व को मात देने के लिए पुर्तगालियों के साथ एक ग्रुप समझोता कर मुगल एवं अंग्रे़जो को परास्त करने की नीति बनाई। इस ग्रुप समझोते में कई बार मुगलों एवं अंग्रे़जो को टक्कर पुर्तगालियों ने दिया। इसी क्रम में रामनगर की शक्ति धीरे-धीरे क्षीण होती गई। और अंतत: मराठियों ने दो-तरफा हमला बोल, पुर्तगालियों को भगा दिया। जो कि भाग कर गोवा में शरण लिया। एक मालवाहक जहाज भी समंदर में डुबाकर पुर्तगालियों को आर्थिक क्षति के संकट में डाल दिया। पुन: मराठी और पुर्तगालियों में एक समझोता हुआ। समझोते के बाद पुर्तगालियों ने, जुर्माने के तोर पर, दादरा नगर हवेली लेलिया।
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पुर्तगालियों ने यहां के मूल जाती के लोग पटेल को, प्रत्यक्ष कर वसूली का नुमाइंदा तय किया। वसूली करने वाले लोगों को, पटेल नाम दिया गया। ये जमींदार तरह के काफी क्रुर होते थे। सन १८५७ की वह तिथि, जो भारतीय इतिहास में सवतंत्रता की बिगुल फुकी गई। भयंकर खुनी संधर्ष गवाह के रूप में साक्षी है। जो कि विश्व के इतिहास में स्वतंत्रता के लिए किए गए संधर्ष का एक असफल दास्तान है। जिसमे हिन्दुस्तानियों के हजारो कुर्बानिया देने बाद भी अंग्रेजों के सामने सिकस्त होना प़डा। हालांकि भारतियों द्वारा अपनी सावतंत्रता को लेकर किए गए, इस संधर्ष से अंग्रे़जो ने भारतीयों के साथ कुछ रियायतें बरतने का निर्णय लिया। किन्तु महारानी विक्टोरिया द्वारा लिया गया यह निर्णय, अंग्रेजी अधिकारियों ने हिन्दुस्तान में लागु नहीं होने दिया। उनकी क्रूरता बदस्तूर जारी रही। उधर पुर्तगालियों द्वारा भी अपने कब्जे वाले राज्यों में, जनता से कर वसूलने के नाम पर शोषण जारी रहा। दादरा नगर हवेली की भौगोलिक स्थति थी कि किसानों आदिवासियों के पास चुकाने के लिए पैसे का अभाव था। लेकिन पटेलों की जबर्दस्ती के कारण इनकी एक न चली। कन्याओं बालिकाओं को धर से पक़डकर पुर्तगालियों के सामने परोस दिया जाता था। वे अपना हबस पूरा कर, स्वतंत्र कर देते थे। पुर्तगालियों एवं पटेलों के अत्याचार के वीरुध अंतत: आदिवासी जनता ने हथियार उठा लिया। कई युद्ध में सिकस्त खाने के बाद भी जंग जारी रही। अंतत: २ अगस्त १९५३ को दादरा नगर हवेली, पुर्तगालियों के कहर से, निजात ली।
दानह के स्वतंत्रता की ल़डाई कही मर्मस्पर्शी है तो, कहीं रोमांचकारी भी एक तरफ मृत्युपर्यंत, बंधुआगिरी तो दुसरी और स्वतंत्र होने की लालसा, अंतत: दानह के ८५, आदिवासियों को हथियार उठाने पर मजबूर कर ही दिया। सभ्यता संस्कृति के असली नायक के रूप में आदिवासी संस्कृति आती है। बदलते परिवेश और तेजी से होती आधुनिकीकरण के कारण वही धीरे-धीरे अपनी संस्कृति और पहचान खोता जा रहा है। जो सिमट कर अब केवल प्रदेश स्तर की होने वाली प्रतियोगिताओं, एवं उत्सव तक हीं रह गई है।